संसाधन

Explore this section to look at the rich repository of resources compiled and generated in-house by RRCEE. It includes curriculum materials, research articles, translations, and policy documents, including commission reports, resources for teachers, select articles from journals and e-books. These all are collated under in user friendly categories, with inter-sectional tags. These resources are both in Hindi and English and cover a wide range of topics.


Jamia milia islamia mein nayi taleem.

प्रो. मोहम्मद तालिब जामिया मिलिया इस्लामिया, नयी दिल्ली के समाज शास्त्र विभाग में कार्यरत हैं| ‘पत्थर खदान मजदूरों के बच्चों का समाज – शास्त्रीय अध्ययन’ उनका पी.एच.डी. के शोध-प्रबन्ध का विषय था| जमीय मिलिया इस्लामिया में, डॉ. जाकिर हुसैन के नेतृत्व में बुनियादी शिक्षा को लेकर जो काम हुआ था, उस पर उनका अध्ययन है| जामिया में बुनियादी शिक्षा की परम्परा को लेकर इन्होंने स्वयं भी नवाचार किया| ‘सहभागी समाजशास्त्र’ को लेकर इन्होंने एक कार्यक्रम शुरू किया है| हाल में प्रकाशित ‘प्रॉब’ रिपोर्ट (पब्लिक रिपोर्ट ऑन बेसिक एजुकेशन इन इंडिया ऑक्सफोर्ड - ) में इनका लेख ‘क्लास विदिन द क्लास रूम’ छपा है| दिगन्तर व्याख्यानों के अन्तर्गत ‘बुनियादी शिक्षा’ पर यह दूसरा व्याख्यान है| इससे पूर्व गांधी जी के बुनियादी शिक्षा चिंतन पर प्रो. कृष्ण कुमार का व्याख्यान ‘विमर्श’ में प्रकाशित हो चूका है| प्रस्तुत व्याख्यान में शिक्षा का तत्कालीन परिप्रेक्ष्य मौजूद है तो ‘नयी तालीम’ की वर्तमान से जुडती और प्रासंगिक दिखती धाराएं हैं| व्याख्यान के बीच में आये विषयान्तर नयी तालीम को दुसरे अर्थ संदर्भो से जोड़ते हैं| व्याख्यान संपादित है किन्तु इसके मूल प्रवाह को बनाये रखने की कोशिश की गई है|

अलीपुर गाँव में शिक्षा: कक्षा में शिक्षण

इस लेख माला के अन्तर्गत अभी तक आप अलीपुर गावं के स्कूल, शिक्षक, बच्चों, और स्थानीय समुदाय के पारस्परिक रिश्तों का बारीक़ विश्लेषण पढ़ चुके हैं| स्कूल में कैसी शिक्षा दी जा रही है, क्या मूल्य-संरचना काम आ रही है और शिक्षक बच्चों के संबंध की विषमता का सामाजिक आधार क्या है – ऐसे प्रश्न पिछले लिखों की मूल अन्तर्वस्तु रहे| प्रस्तुत लेख कक्षा में होने वाली शिक्षण-प्रक्रिया का सूक्ष्म विश्लेषण कर उसमें अन्तर्निहित कमजोरियों को उद्घाटित करता है| हम देख सकते हैं कि कक्षा-शिक्षण में यहां बच्चों की भूमिका लगभग नगण्य है|

किशोर

बच्चे सामान्यतः अपने लाड़-दुलार भरे घरेलू परिवेश से स्कूल आते हैं| आरंभ में ही वे शिक्षक को अपने पारिवारिक वयस्कों – माँ – पिता, बड़े भाई बहिन की तरह देखते हैं और उनसे स्नेह और वात्सल्य की अपेक्षा रखते हैं| यह शब्द चित्र इस ओर हमारा ध्यान आकर्षित करता है और बताता है कि शिक्षक का स्नेहिल व्यवहार बच्चे के सीखने को बाधित नहीं करता बल्कि सीखने की प्रक्रिया को और जीवंत और स्फूर्त करता है| लेकिन इसका क्या हो कि हमारे घर-परिवारों में ही बच्चों के लिए स्नेह और अवकाश के स्रोत निरंतर सूखते जा रहे हैं?

Ganitsushiksha aur sanskriti

"यान गुलबर्ग के वृह्द्काय ग्रंथ ‘मैथेमैटिक्स: फ्राम द बर्थ ऑफ नंबर्स’ (न्यूयार्क : डब्ल्यू; डब्ल्यू. नार्टन एंड कंपनी, ) के प्राक्कथन ‘मैथेमैटिक्स इन आवर कल्चर’ में पीटर हिल्टन ने गणित के संदर्भ में पश्चिमी, खासकर आंग्ल-अमेरिकी विश्व की, शिक्षा व्यवस्था में आये असंतुलन और विकृति पर उंगली राखी है| इसी के साथ वह अपाने समाज और संस्कृति के व्यापकतर क्षेत्र में अभिभावी रुख और मानसिकता को भी अपनी आलोचना का निशाना बनाते हैं|
पीटर हिल्टन का यह आलेख खास गुलबर्ग की किताब के लिये न लिखा जाकर वस्तुतः उनके पूर्ववर्ती काम “अच्छी शिक्षा का गणितीय घटक” (मिसिलेन्या मैथेमैटिका, स्प्रिंगर-वेलार्ग, बर्लिन, ) पर आधारित है, लेकिन इससे मौजूदा रूप में भी उसकी उपयोगिता – और आकर्षण – कम नहीं होता| वह बर्मिंघटन – स्थित इमेरिट्स स्टेट यूनिवर्सिटी ऑफ न्यूयार्क में न्गानित के लब्ध-प्रतिष्ठ प्रोफेसर हैं और ब्रितानी संस्थिति-विज्ञानी हेनरी व्हाइटहैड के छात्र रहे हैं|
प्रस्तुत आलेख में जहाँ कुछ लोक-प्रचलित भ्रांतियों – यथा, गणना-तंत्र को अक्सर गणित का शुमार या उसकी एकमात्र संभव शुरुआत समझ लेना (जो भारतीय शिक्षा-व्यवस्था के औपनिवेशिक चरित्र के बने रहने से हमरे यहां भी देखा जा सकत है – को दुरुस्त करने का आग्रह है, वहीँ विद्द्वान लेखक ‘सुशिक्षित व्यक्ति के अभीष्ट’ की संकल्पना की एक रुपरेखा भी रचते हैं, जो निश्चित रूप से उनके गुरु की ‘सहज मूल्यवान जीवन – लक्ष्यों’ की अवधारणा से तुलनीय तो हो सकती है लेकिन हमारी खास हिंदुस्तानी जमीन पर और शिक्षा के वर्गीय अंतर्तत्व की समझदारी की रोशनी में हमेशा आसानी से तद्वत ग्रहा नहीं हो सकती| लेकिन फिर, शिक्षा, सुशिक्षितता और विधाओं की ठोस समाज-सापेक्षिता और इतिहास-संगतता जैसे आधुनिक मानव-मूल्यों की अंतर्निहित मान्यताएं उनके पास भी हैं| (और इसलिए वे पुनर्जागरण के मुरीद तो हैं, तथाकथित उत्तर-आधुनिकतावादी हरगिज नहीं), और इस लिहाज से कुछ बातों पर गौर करने का सुभीता और अभिप्रेरणा पीटर हिल्टन देते हैं| फिर यदि उनकी कतिपय स्थापनाएं और दलीलें बहसतलब हों तो अच्छा ही है|"

अलीपुर गाँव में शिक्षा: शिक्षक और – बच्चे

इस लेख माला के अन्तर्गत अभी तक आप अलीपुर गावं के स्कूल, शिक्षक, बच्चों, और स्थानीय समुदाय के पारस्परिक रिश्तों का बारीक़ विश्लेषण पढ़ चुके हैं| स्कूल में कैसी शिक्षा दी जा रही है, क्या मूल्य-संरचना काम आ रही है और शिक्षक बच्चों के संबंध की विषमता का सामाजिक आधार क्या है – ऐसे प्रश्न पिछले लिखों की मूल अन्तर्वस्तु रहे| प्रस्तुत लेख कक्षा में होने वाली शिक्षण-प्रक्रिया का सूक्ष्म विश्लेषण कर उसमें अन्तर्निहित कमजोरियों को उद्घाटित करता है| हम देख सकते हैं कि कक्षा-शिक्षण में यहां बच्चों की भूमिका लगभग नगण्य है|

शिक्षा के उद्देश्यों का पुनर्निर्धारण

शिक्षा समाज की संस्थिति के समान्तर स्वरुप ग्रहण करती है| समाज की प्रगति अथवा मानव जीवन की बेहतरी की ऊर्ध्व दिशा में शिक्षा अहम् भूमिका निभाती है| शिक्षा की यह भूमिका बच्च्चे के समाजीकरण से ही शुरू होकर जीवन-पर्यन्त कायम रहती है| समाज से शिक्षा का अन्तर्सम्बंध गतिशील और द्वंदात्मक है| समाज में आने वाले परिवर्तन अथवा उथल-पुथल शिक्षा के उद्देश्यों को पुनर्परिभाषित करते हैं और उसके स्वरुप को फिर से रूपायित करते हैं| वर्तमान वैश्वीकरण, बाजारवाद और संचार से सिकुड़ी दुनियां के उत्तर-आधुनिक समाज ने रूपान्तरण की तीव्र प्रक्रिया स गुजरकर अपना रंग-रूप लगभग पूरी तरह बदल लिया है| ऐसी स्थिति में क्या शिक्षा के उद्देश्यों का पुनर्निधारण आवश्यक है, इस प्रश्न पर यहां विचार किया जा रहा है|

अलीपुर गाँव में शिक्षा

शिक्षा की परिभाषाएं इसे एक उदात्त, अत्यंत व्यापक और उत्कृष्ट प्रक्रिया के रूप में व्याख्यायित करती हैं| उन परिभाषाओं में रचा गया आदर्श सामान्यतः लगभग आलौकिक और लुभावना होता है या फिर अमूर्त और उलझा हुआ| जब आप जमीनी स्तर पर शिक्षा की किसी प्रक्रिया को घटित होते देखते हैं तो अक्सर आदर्श और चिंतन छिन्न-भिन्न हो जाते हैं| प्रस्तुत लेख – श्रंखला हमें कुछ ऐसा ही ‘झटकेदार अनुभव’ देती है| यहां शिक्षण ‘छाया’ अनुकरण में तब्दील होता दिखता है और समूचा शैक्षिक उपक्रम कोई आरामतलब नौकरी पाकर ‘बड़े आदमी’ बनने के लक्ष्य में घट जाता है|