संसाधन

Explore this section to look at the rich repository of resources compiled and generated in-house by RRCEE. It includes curriculum materials, research articles, translations, and policy documents, including commission reports, resources for teachers, select articles from journals and e-books. These all are collated under in user friendly categories, with inter-sectional tags. These resources are both in Hindi and English and cover a wide range of topics.


National book trust ki kuchh bal pustaken

प्राथमिक शिक्षा के सार्वजनीनीकरण के चलते हासिल हुई उपलब्धियों के बाद जो एक नयी चुनौती सामने आयी है, वह है, बच्चों के लिए प्रचुर साहित्य की उपलब्धता| यदि बच्चों को पढ़ना-लिखना सीखते ही पर्याप्त पूरक पुस्तकें उपलब्ध नहीं करायी जाती तो एक ओर तो उनमें पढ़ने की आदत नहीं पनप पाती, दुसरे यह स्थिति पढ़ने की क्षमता के भी प्रतिकूल जाती है| कहना न होगा कि खराब किताबें इसका विकल्प कदापि नहीं हो सकती| नेशनल बुक ट्रस्ट ने बच्चों के लिए रोचक और ज्ञानवर्धक बल साहित्य प्रकाशित करने की दिशा में बहुत काम किया है| बच्चों के लिए रची किताबों पर गंभीर चर्चा को हम बहुत जरुरी मानते हैं|

Seekhne mein gati ki swatantrata

बच्चों के सीखने में गति की स्वतंत्रता की अवधारणा का उद्गम इस विचार से है कि हर बच्चे की सीखने की क्षमता भिन्न होती है| एक शैक्षिक विचार कई अनुवर्ती अवधारणाओं को जन्म देता है और ये अवधारणाएं शिक्षण-विधि को प्रभावित करती हैं| सीखने में गति की स्वतंत्रता को बच्चों के बीच मान्यता देने के जो निहितार्थ हैं, उनका इस लेख में विवेचन किया गया है| सीखने में बच्चों की गति की भिन्नता से विभिन्न स्तरभेद सामने आते हैं, लेकिन इन स्तरभेदों के चलते भी सैद्धांतिक समझ के आधार पर चीजों को एक भिन्न किन्तु विशिष्ट तरीके से संयोजित किया जा सकता है| इस समस्त उपक्रम में शिक्षक की एक नयी भूमिका उभरती हैं और साथ ही बच्चों के साथ शिक्षक के संबंधों का एक नया आयाम सामने आता है|

Bihar gaurav aur Bihar vaibhav

‘बच्चों को ज्ञात से अज्ञात की ओर ले जाना’, ‘प्राथमिक स्तर पर मातृभाषा में पढाई’ और ‘पाठ्यवस्तु के स्थानीय परिवेश से जुड़ाव’ जैसी अनेक शिक्षाशास्त्रीय मान्यताएं आज वैश्विक स्तर पर सूत्र-कथन बन चुकी हैं| लेकिन व्यवहार में गरीब बच्चों की शिक्षा से इन मान्यताओं का कितना ताल्लुक है, यह हम किसी ऐसे बच्चे की पाठ्यपुस्तकें उलट पलट कर जान सकते हैं| छपाई की भूलों को छोड़ भी दें तो तथ्यात्मक भूलों और पाठ्यपुस्तक निर्माताओं के निजी पूर्वाग्रहों से ये पुस्तकें बुरी तरह ग्रस्त रहीं हैं| समूचे हिन्दी प्रदेशों में ऐसी शिकायतें बराबर उठ रही हैं| यहां बिहार की स्थिति का एक नमूना प्रस्तुत है|

नजरू.

भय बच्चे को असहज कर देता है और जरुरी नहीं बच्चा स्कूल और शिक्षक से ही भयभीत हो| भय से बच्चा आत्मविश्वास खो देता है और अपनी अस्मिता को लेकर हीनता अनुभव करता है| कई बार औरों का नजरिया बच्चे की आत्मछवि को प्रभावित करता है|

सहज शिक्षा कार्यक्रम में महिला शिक्षक

राजस्थान में महिला शिक्षा की स्थिति अत्यंत चिंतनीय है| शिक्षाकर्मी परियोजना के अन्तर्गत महिला शिक्षा को प्रोन्नत करने के लिए सुदूर अंचलों में कई अभिनव प्रयोग किये गये| इस समय प्राथमिक शिक्षा के लोकव्यापीकरण में संलग्न लोकजुम्बिश परियोजना महिला शिक्षा पर विशेष प्रयत्न कर रही है| इस समस्या का एक सामान्य पक्ष तो यही है कि बालिकाएं शिक्षा की मुख्यधारा से नहीं जुड़ पाती| लेकिन समस्या का एक गंभीर पक्ष महिला-शिक्षकों का आभाव भी है| शिक्षाकर्मी परियोजना में कम पढ़ी-लिखी महिलाओं को सघन प्रशिक्षण द्वारा शिक्षाकर्मी बनाने का कार्यक्रम चलाया गया| लोकजुम्बिश परियोजना द्वारा इसी तरह के एक प्रयास का यहां परिचय दिया जा रहा है| इस संक्षिप्त रपट से इस प्रयास की चुनौतियों और संभावनाओं की झलक मिलती है|

Nyuntam adhigam star : doosra pahloo.

संवाद की सार्थकता तभी है जब उसके मूल में सच्ची चिंता और बदलाव के प्रति तीव्र इच्छा हो| हमारे लिए यह प्रीतिकर अनुभव है कि संवाद के प्रति ऐसा गंभीर सरोकार मौजूद है| हम इसे सामने की कोशिश में हैं| इस बार यदि अब तक लगभग सार्वजनीन हो चुके ‘न्यूनतम अधिगम स्तर पतिवाद किया गया है तो दूसरी और ‘विमर्श’ पर पर्तिक्रिया के बहाने ही सही शिक्षा के भाषायी माध्यम और शिक्षा में देशज संस्कृति के क्षरण जैसे ज्वलंत मसलों को उठाया गया है| संवाद के लिए कोई कृत्रिम उपक्रम कारगर नहीं हो सकता लेकिन सहज खुलती बातचीत के प्रति हमारी जिज्ञासा बनी रहेगी|

मिशन शिक्षा : कितनी मिस्सिओनारी कितनी औपनिवेशिक?

शिक्षा में धर्म की स्थिति और धार्मिक शिक्षा को लेकर ‘शिक्षा-विमर्श’ ने एक संवाद शुरू किया था| पिछले अंक में उत्तर प्रदेश के मदरसों में दी जा रही शिक्षा को लेकर वसीम अहमद के लेख का हिन्दी अनुवाद छपा था| प्रस्तुत आलेख इसी संवाद को आगे बढ़ाता है| भारत में मिशनरी शिक्षा के संक्षिप्त इतिवृत के साथ यह इसमें आए स्वरूपगत क्रमिक परिवर्तनों को रेखांकित करता है| लेख की निष्पत्ति यह है कि ईसाई मिशनरियों ने धर्मान्तरण में उतनी भूमिका नहीं निभायी, जितनी भारतीय शिक्षा के चरित्र को औपनिवेशिक बनाने में निभायी है और इस भूमिका में अभी भी कोई बुनियादी अन्तर दिखायी नहीं देता है|

शिक्षा और भारतीय लोकत्रंत्र

स्वतंत्रता के तुरंत बाद देश के नव-निर्माण के साथ जोड़कर शिक्षा की जो परिकल्पना की जा रही थी, वह समान्यतः समकालीन शिक्षा चिंतन का परिप्रेक्ष्य नहीं बनती| बल्कि ऐसा लगता है कि न सिर्फ राज्य ही अपनी निति और प्रवृत्तियों में आजादी के बाद अपने प्रारंभिक शैक्षिक संकल्पों से विचलित होता गया है बल्कि राज्येतर शिक्षा-परिदृश्य में भी किसी दृढ़ सैद्धांतिक संकल्पशीलता और व्यापक सरोकारों का क्षरण दिखायी देता है| यहां में लिखी एक छोटी-सी किताब पर चर्चा की जा रही थी जिसमें ‘नये भारत के लिए शिक्षा कैसी हो’ इस सवाल पर गंभीर विचारणा की गई है| बेशक ऐसी विचारणा पर यह कोई अकेली किताब नहीं होगी और इस चिन्तन को यदि प्रस्थान-बिन्दु मानकर चाला जाये तो लगेगा कि स्वतंत्रता के अर्धशताब्दी गुजरने के बाद भी जैसे हम प्रस्थान-बिन्दु के आसपास ही कदमताल कर रहे हैं|

अब तक तो पांचवी में हो जाती

जयपुर के फागी विकास खंड में कार्यरत संस्था विशाखा इंस्टिट्यूट ऑफ़ डेवलपमेट स्टडीज ससेक्स (यू. के.) के साथ मिलकर शिक्षा में जाति और लैंगिक भेदभाव और उसके प्रभावों पर अध्ययन कर रही है| डी. एफ. ई. डी. द्वारा वित्त पोषित इस अध्ययन में राजस्थान के टोंक व् गंगानगर जिलों की कुछ दलित बहुल आबादियों को अध्ययन के लिए चुना गया है| शोध टीम द्वारा स्कूल छोड़ चुकी एक वर्षीय बालिका से की गई इस बातचीत द्वारा बच्चों के बीच में स्कूल छोड़ने के कुछ कारणों का पता चलता है| संदर्भित स्कूल टोंक की दलित-मुस्लिम आबादी से घिरा एक सरकारी स्कूल है| इस बातचीत में बालिका की पढने की हसरत और नहीं पढ़ पाने की बेवसी की मार्मिक अभिव्यक्ति है|