संसाधन

Explore this section to look at the rich repository of resources compiled and generated in-house by RRCEE. It includes curriculum materials, research articles, translations, and policy documents, including commission reports, resources for teachers, select articles from journals and e-books. These all are collated under in user friendly categories, with inter-sectional tags. These resources are both in Hindi and English and cover a wide range of topics.


Alpsankhyko ke adhikaar aur shaikshik satta

सांस्कृतिक अल्पसंख्यकों के अधिकारों को मान्यता देने की बहस में शैक्षिक-सत्ता के अधिकार का उल्लेख प्राय: अधिकारों के ठोस उदाहरण के रूप में क्या जाता है और इस अधिकार को अल्पसंख्यकों का एक विशिष्ट अधिकार माना जाता है| यह एक विचित्र बात है, क्योंकि अल्पसंख्यकों के अधिकारों में यह अधिकार ऐसा है जिसे न्यायसंगत सिद्ध करना असंभव है| उदार जनतांत्रिक व्यवस्था के साथ सांस्कृतिक अल्पसंख्यकों के अधिकारों की संगति बैठाने के हाल के प्रयत्नों में जो कठिनाई आई है, उससे प्रकट होता है कि ऐसे समुदायों एवं उनके बालकों और माता-पिताओं एवं उनके बालकों के बीच के संबंधों की जटिल प्रकृति की उपेक्षा तथा उदार लोकतंत्र व् नागरिक व्यवस्था पर आने वाले खतरों का अवमूल्यन किये बिना, अल्पसंख्यकों के शैक्षिक अधिकारों को, खासतौर से, न्यायोचित नहीं ठहराया जा सकता है| ‘जर्नल ऑफ़ फिलॉसफी ऑफ़ एजुकेशन’ से साभार|

स्कूल के इर्द- गिर्द

स्कूल लो लेकर बच्चों में भय, संदेह और संकोच लगभग सामान्य बात है| स्कूल का परिवेश कैसा हो, इस पर बहुत बड़ी-बड़ी बातें होती रही हैं| ऐसा कम ही देखा गया है कि स्कूल की संस्कृति की निर्मिति में बच्चों के अन्तर्जगत को ध्यान में रखा गया हो| यह बच्चों के प्रति शिक्षक की समझदारी और संवेदनशीलता के बिना संभव भी नहीं है| टीकमगढ़ (मध्यप्रदेश) बाल साहित्य केन्द्र के माध्यम से संपन्न यह प्रयोग स्कूल के परिवेश, शिक्षण-सामग्री की प्रकृति और उसके उपयोग तथा सीखने-सिखाने की प्रक्रिया के बारे में कुछ मूल्यवान अनुभवों को सामने रखता है|

बेचारा सुधीर

यह संक्षिप्त मार्मिक वृत्तान्त एक बड़ी बात कहता हैं| इसमें कतिपय निजी छात्रावासों में घुटते बच्चे और वहां की अव्यवस्थाओं की झलक है तो वार्डन की संवेदनहीनता भी| वृत्तान्त उन अभिभावकों को कटघरे में खड़ा करता है जिन्होंने अपने बच्चों को खुद की अपेक्षाओं के तले ए.बी.ए. दिया है| यह वृत्तांत शिक्षा के निजीकरण की निम्न मध्यवर्गीय बच्चे पर पड़ने वाली मर का संकेत भी है|

बाल शिक्षण : कुछ सैक्ष्निक और सामाजिक प्रशन

शिक्षा के प्रसार और शैक्षिक गुणवत्ता के प्रति बढ़ती चिन्ता के साथ ही स्कूल-पूर्व बाल-शिक्षण के प्रति भी आम जागरूकता में इजाफा हुआ है| तथापि स्कूल पूर्व शिक्षण के क्षेत्र में गंभीर विमर्श को लेकर स्थिति संतोषप्रद नहीं है| महाराष्ट्र की ‘भारती अर्थ विज्ञान वर्घिनी’ संस्था में 31 अक्टूबर, 1999 को ‘बाल शिक्षण विषयक प्रश्न’ पर चर्चा के लिए एक सभा का आयोजन किया| यहां प्रस्तुत है इस अवसर पर प्रा. रमेश पानसे द्वार दिये गये भाषण का सार|

Shikshko ke liye bhashaa vigyaanI

भाषा-शिक्षण में प्रारंभिक कक्षाओं के शिक्षक सामान्यतः पाठ्यवस्तु के आलावा व्याकरण पर ही निर्भर रहते हैं| वे इससे लगभग अनभिज्ञ हैं कि भाषा विज्ञान के रूप में एक ऐसा समृद्ध और बहुआयामी ज्ञान अनुशासन मौजूद है जिसकी बुनियादी जानकारी उनके भाषा-शिक्षण को कई गुना प्रभावी और जीवंत बना सकती है| बल्कि भाषा विज्ञान बच्चों के सीखने की प्रक्रिया, ज्ञान निर्मिती,भाषा विशेष की प्रकृति और सांस्कृतिक संघटन जैसे क्षेत्रों को समझाने में उनके लिए बहुत मददगार साबित हो सकता है|

मानव और विद्यालय

"इस पाठ (टेक्सट) के लेखक माइकेल औक्शौत है| युः उनके एक लम्बे लेख “एजुकेशन : द एन्गेजेमेंट एण्ड इट्स फ्रस्ट्रेशनस्” से लिये गये अंश हैं| पहले हिस्से में औकशाट मानव के बारे में अपनी धारणा की अभिव्यक्ति और स्थापना करते हैं| दुसरे हिस्से में विधालय की अवधारणा की बात करते हैं| औकशाट की विधालय की धरना में कई चीजें ऐसी हैं जो भारत में विधालयों की मध्यवर्गीय धारणा के विपरीत हैं| उदाहरणार्थ: औकशाट का कहना है कि सच्ची शिक्षा शिक्षार्थी को ऐसा कुछ नहीं देती जो उसे दूसरों की तुलना में कोई अतिरिक्त भौतिक लाभ दिलवा सके| दूसरी तरफ मध्यवर्ग अपनें बच्चों की शिक्षा में निवेश ही लाभार्जन के लिए करता है| इसी तरह औकशाट की बहुत-सी धारणायें हाल के वर्षों में जोर-शोर से प्रचारित नरम-शिक्षणशास्त्र, जो कि दिमागी और भावनात्मक दोनों पहलुओं से नरम है, का भी विरोध करती है| जैसे औकशौट यह कहना कि सिखाना सिवान-विहीन चौगा नहं, सायास करने की चीज है, या कि यह कहना कि विधालय अलग और फासले पर ‘आश्रम’ जैसी चीज है| जबकि नरम-शिक्षण शास्त्र में सीखना स्वतः होने वाली चीज है और वह जो “ फासले पर” है, घटिया विधालय है|
प्रो. माइकेल औकशौट मूलतः राजनीति दर्शन के प्राध्यापक थे| शिक्षा दर्शन में वे उदार शिक्षा (लिबरल एजुकेशन) के हिमायती थे| प्रस्तुत आलेख में उन्होंने अपनी बात बेलाग एवं पुरजोर तरीके से कही है| आशा है लेख का यह अंश नरम शिक्षण-शास्त्र के जमाने में शिक्षा के गंभीर पक्ष की तरफ संकेत करेगा|"

Gyanmeemansa aur shiksha

"बिना ज्ञान की बात किये शिक्षा की बात करना संभव नहीं है| शिक्षा का एक उद्देश्य बच्चे के ज्ञान में बढ़ोतरी तो सर्वमान्य है| फिर चाहे वह बढ़ोतरी बच्चे को ज्ञान के हस्तान्तरण के द्वार करना चाहें या फिर उसको स्वयं ज्ञान के निर्माण और खोज की विधि सिखा कर| इसी प्रकार चाहे तथाकथित ‘व्यावहारिक ज्ञान’ को तरजीह दें या कथित ‘किताबी ज्ञान’ को| ये दो बहसें हमारे शिक्षा जगत में आम बात हैं| एक “पूर्व-निर्मित-डिब्बा-बन्द-ज्ञान का हस्तान्तर” बनाम “अनुभव-के-आधार-पर-कक्षा-में-ज्ञान-निर्माण”; तथा दो, “व्यावहारिक-ज्ञान” बनाम “पुस्तकीय-ज्ञान”| दोनों ही बहसों में बेचारे “ज्ञान” शब्द को कोई इधर खिंचता है और कोई उधर| यह सोचने की फुरसत किसी को भी नहीं होती कि “ज्ञान” से आशय क्या है और वह आता कहां से होगा? शिक्षाक्रम निर्माताओं के लिए ये सवाल और भी महत्वपूर्ण हो जाते हैं| इसराइल शेफलर का यह लेख इन सवालों पर संक्षिप्त पर महत्वपूर्ण बात कहता है, यही इसे यहां देने का सबब है|
यह लेख शेफलर के अंग्रेजी लेख “एपिस्टेमोलोजी एण्ड एजुकेशन” का अनुवाद है| इसराइल शेफलर हावर्ड विश्वविधालय में शिक्षा दर्शन के प्रोफेसर एमेरिटस हैं और फिलोसोफी आफ एजुकेशन रिसर्च सेंटर के निदेशक भी| आपने पिचले तीन दशक से अधिक समय में शिक्षा दर्शन पर कई किताबें एवं लेख लिखे हैं| शेफलर विशेष रूप से ज्ञानमीमांसा, विवेक और शिक्षा पर, और इनके अंतर-संबंधो पर लिखते रहे हैं| शेफलर विवेक एवं शिक्षा में गहरा आपसी संबंध देखते हैं और विवेक के विकास को शिक्षा के प्रमुख उद्देश्यों में से मानते हैं|
इस लेख का अनुवाद विपाशा अग्निहोत्री ने एक राष्ट्रीय स्तर की स्रोत संवर्धन कार्यशाला के लिए किया था| ‘विमर्श’ के लिए उस अनुवाद में कुछ फेरबदल किया गया है, मुख्यतः बात को सरल बनाने के लिए| सरल बनाने का प्रयास में कोई त्रुटियां हुई हों तो उनके लिए विपाशा अग्निहोत्री जिम्मेदार नहीं हैं|"