संसाधन

Explore this section to look at the rich repository of resources compiled and generated in-house by RRCEE. It includes curriculum materials, research articles, translations, and policy documents, including commission reports, resources for teachers, select articles from journals and e-books. These all are collated under in user friendly categories, with inter-sectional tags. These resources are both in Hindi and English and cover a wide range of topics.


शिक्षा में मूल्यों की प्रतिस्थाके निहितार्थ

शिक्षा और मूल्यों के संबंध क बहस हालांकि काफी पुरानी है लेकिन यदि हम मूल्यों को समाज सापेक्ष मानते हैं और समाज को परिवर्तनशील तो इस संबंध की प्रकृति और उसके स्वरुप पर बार-बार बात करनी पड़ेगी| इधर पाठ्यक्रम में मूल्यों के समावेश की बात जोर-शोर से उठायी जा रही है और यह प्रक्रिया कमोबेश शुरू भी हो गयी है| ‘शिक्षा-विमर्श’ ने शिक्षा में मूल्यों के प्रश्न को पहले उठाया है| उसी क्रम में प्रस्तुत लेख मूल्यों के प्रश्न को शिक्षा-प्रणाली के यथास्थितिवाद बनाम शिक्षा में आमूल-चुल परिवर्तन के द्दन्द्द में उठाता है|

अँग्रेजी भाषा और प्राथमिक शिक्षा

विविध भाषा-भाषी लोगों के बीच अंग्रेजी भाषा का सार्वधिक लोगों द्वारा प्रयोग करना, सूचना तकनीक में अंग्रेजी के प्रयोग एवं ज्ञान-विज्ञान की शाखाओं से संबंधित सामग्री के अंग्रेजी में सहज सुलभ होने जैसे तथ्य क्या अंग्रेजी भाषा का शिक्षा के साथ कोई सरोकार बनाते हैं? यदि हां तो उसमें प्राथमिक शिक्षा की भूमिका क्या व कैसी होगी? वे कौन से कारण हैं या थे जिनके चलते अंग्रेजी भाषा उभयनिष्ठ भाषा के रूप में सर्वधिक प्रयोग किये जाने वाली भाषा बनी? इन्हीं प्रश्नों को उभारने के प्रयास में यह लेख संदर्भित है|

राष्ट्रीय पाठ्यक्रम दस्तावेज :आलोचना का एक और पक्ष

राष्ट्रीय शैक्षिक अनुसंधान एवं प्रशिक्षण परिषद् द्वारा इस बहस के लिए जरी ‘राष्ट्रीय पाठ्यक्रम’ दस्तावेज पर ‘शिक्षा-विमर्श’ के पिछले अंकों में आलोचनात्मक लेख एवं टिप्पणियां प्रकाशित हुई हैं| इन प्रतिक्रियाओं से लगता है कि यह दस्तावेज पूर्वग्रहग्रस्त, एकांगी और असंगत है| हम चाहेंगे कि इस दस्तावेज को लेकर शिक्षा-परिदृश्य में आगामी कार्यवाही की रुपरेखा बने| फ़िलहाल राष्ट्रीय पाठ्यचर्या को लेकर बहस ‘शिक्षा-विमर्श’ जरी रहेगी| इस बार दस्तावेज में वर्णित तीसरी कक्षा से अंग्रेजी शिक्षा और माध्यमिक स्टार पर व्यावसायिक शिक्षा के प्रस्तावों पर टिप्पणी दी जा रही है|

कला शिक्षाक्रम: एक प्रस्ताव

प्रारंभिक स्तर पर कला-शिक्षण की स्थिति संतोषप्रद नहीं है, यह तो सच है| किन्तु इस क्षेत्र में कहीं कुछ भी नहीं हो रहा-यह कहना भी सही नहीं होगा| असल में कला-शिक्षण विषयक चिंतन और प्रयोग शिक्षा-विमर्श में ही हाशिए पर रहे हैं| हमारी कोशिश होगी कि हम ऐसी चीजों को आपके सामने लायें| इसकी शुरुआत दिगन्तर में निर्मित कला शिक्षाक्रम के प्रस्तावित दस्तावेज से कर रहे हैं| इस प्र प्रतिक्रियाओं का स्वागत है| साथ ही कला-शिक्षण विषयक लेख एवं नवाचार संबंधी रिपोर्ट आमंत्रित की जाती है|

शिक्षा का आधार कला

कला शिक्षा के निर्विवाद महत्व के बावजूद मुख्यधारा विधालयों में इसकी स्थिति घोर असंतोषजनक है| स्वयं शिक्षक वर्ग कला-शिक्षण को लेकर अगंभीर और उदासीन है| हिन्दी प्रदेशों का समाज कला की उपेक्षा करने में अग्रणी है| ऐसी स्थिति में कला-शिक्षण पर, विशेषकर प्रारंभिक स्टार पर कला-विधाएं सिखाने के लिए उपयोगी पुस्तकों का दुर्लभ होना स्वाभाविक है| देवी प्रसाद की पुस्तक इस क्षेत्र में क्लासिक का दर्जा रखती है| इसमें उनका मौलिक चिंतन गांधी, टैगोर और चित्रकार नंदलाल बासु की परंपरा को भी समेटे है| आगे हम कला-शिक्षण विषयक कुछ और पुस्तकों पर भी चर्चा करेंगे|

17वी और 18 वी शताब्दी में शिक्षा व्यवस्था

ब्रिटिश पूर्व भारत की शिक्षा-प्रणाली को लेकर इतिहासकार एकमत नहीं हैं| जबकि कुछ लोगों की मान्यता है, ब्रिटिश पूर्व भारत में शिक्षा सिर्फ प्रभु-वर्ग को ही सुलभ थी, इसके विपरित कुछ लोग इस काल को शिक्षा की दृष्टि से स्वर्ण युग जैसा मानते हैं| गांधी जी और इतिहासकार धर्मपाल की मान्यता है कि अंग्रेजों ने भारत की सुदृढ़ और व्यापक देशज शिक्षा-प्रणाली को तहस-नहस कर दिया| ब्रिटिश पूर्व भारतीय इतिहास को लेकर अनुसंधान अभी जरी हैं| हम शिक्षा के देशज स्वरूपों पर वस्तुपरक ओर प्रमाणिक जानकारी आरंभ से प्रकाशित करते रहे हैं|

Shiksha aur bhoomandaliyakaran

सांस्कृतिक दृष्टि से भूमंडलीकरण मानकीकरण और विविधिकरण की दो परस्पर विरोधी प्रवृत्तियों को जन्म देता है| आबादी के विभिन्न समूहों की स्वच्छंदता को दूर करते हुए जीवन शैलियों, संचार, भाषाओँ, और संस्कृतियों के मानकीकरण की लहर के कारण, अल्पसंख्यकों की पहचानों और अधिकारों की सुरक्षा के लिए आर्थिक और राजनैतिक क्षेत्र में, और सांस्कृतिक क्षेत्र में भी प्रतिरोध सामने अ रहा है| यह अलग बात हा कि अभी यह प्रतिरोध कारगर नहीं हो पा रहा| इसमें शक नहीं कि शिक्षा ही भू-मंडलीकरण से उत्पन्न समस्याओं के उत्तर देगी| सामाजिक पुनरेकीकरण के तत्व के रूप में शिक्षा को एक नया और विविधता से सम्पन्न रूप ग्रहण करना होगा| पर यह खास तौर पर भविष्य में,वह प्रमुख तत्व बनी रहेगी जो व्यक्तियों को अपाने भाग्य के नियंत्रण में समर्थ बनायेगी| प्रस्तुत आलेख कुछ ऐसी निष्पत्तियां सामने रखता है|

वैश्वीकरण से बदलते भारतीय शिक्षा निंति के सरोकार

यह वैश्वीकरण का दूसरा पाठ है जो विश्व-ग्राम में शिक्षा को आम भारतीय के नजरिये से देखता है| इस आलेख में स्वतंत्र भारत की शिक्षा नीतियों के आन्तरिक अन्तर्विरोध और उन पर हावी औपनिवेशिक विरासत का निर्मम विश्लेषण है| साथ ही ‘ सबके लिए शिक्षा’ के वैश्विक अभियान की प्रभान्विती में उभरे शैक्षिक-विभेद का विवरण है – जिसकी पृष्ठभूमि में प्रभुवर्ग के निहित स्वार्थ और सत्ता में उनकी पहुंच सक्रिय है| आलेख अन्तराष्ट्रीय वित्तीय पूंजी के देशज शिक्षा में हस्तक्षेप और उसके दुष्परिणामों से अवगत कराता है| ‘विमर्श’ में जिन्होंने अनिल सद्गोपाल का व्याख्यान पढ़ा है, उन्हें लगेगा कि वे कुछ बातें यहां दुहरा रहे हैं लेकिन ये ऐसी बातें हैं जिन्हें फिर से जोर देकर कहने की जरुरत है|