संसाधन

Explore this section to look at the rich repository of resources compiled and generated in-house by RRCEE. It includes curriculum materials, research articles, translations, and policy documents, including commission reports, resources for teachers, select articles from journals and e-books. These all are collated under in user friendly categories, with inter-sectional tags. These resources are both in Hindi and English and cover a wide range of topics.


Ivaan Ilich ka shiksha chintan

इवान इलिच के तिक्षण विचारों ने विश्व भर के शैक्षिक परिदृश्य में हलचल मचा दी थी| उनके सुझाये विकल्पों को भले ही शिक्षाविदों ने स्वीकार नहीं किया लेकिन शिक्षा के पारंपरिक और प्रचलित ढ़र्रे को लेकर उनकी आलोचना का प्रतिकार संभव नहीं है| आज जब दुनिया फिर संक्रमण से गुजर रही है, इवान इलिच का शिक्षा-चिंतन हमें ज्ञान के वर्चस्व से आगाह करता इसके विकेन्द्रण का मार्ग र्पशस्त करता है|

Shiksha ke sambandh mein

विज्ञान के दर्शन की मानववादी व्याख्या करने वाले प्रसिद्द वैज्ञानिक अलबर्ट आइंस्टीन ने शिक्षा पर भी सूत्रबद्ध विचार व्यक्त किये हैं| यह दस्तावेज उनके द्वारा अमरीका की उच्च शिह्क्षा के त्रिशताब्दी समारोह के अवसर पर अलबनी न्यूयार्क में 15 अक्टूबर, 1936 को दिये गये अभिभाषण का लिखित रूप है| हम इसे ‘सामयिक वार्ता’ (नव’ 2000) से पुनर्प्रकाशित कर रहे हैं जिसका अंग्रेजी से अनुवाद श्री नवल किशोर ने किया था| इसी भाषण में आइंस्टीन शिक्षा पर किसी विद्वान की परिभाषा को उद्घृत करते हैं: “विधालय में सिखा हुआ सब कुछ भूल जाने के बाद भी जो बच जाता है वही शिक्षा है|”

शिक्षा क्रम की सैधांतिक प्रष्टभूमि

पाठ्यक्रम पर चिंतन और संवाद श्रंखला में हमने पाया कि शिक्षा दर्शन के ठोस परिप्रेक्ष्य और सैंद्धांतिक पृष्ठभूमि के बिना सुसंगत और सार्थक पाठ्यक्रम की कल्पना मुश्किल है| ‘शिक्षा-विमर्श’ के पिछले अंक में राष्ट्रीय शैक्षणिक अनुसंधान एवं प्रक्षिक्षण परिषद् द्वारा राष्ट्रीय बहस के लिए जरी ‘विधालायी शिक्षा के लिए पाठ्यक्रम दस्तावेज’, प[आर रोहित धनकर का विश्लेषण आलेख छपा था| पाठ्यक्रम चिन्तन के क्रम में इस बार उनका वैल्किप विचार प्रस्तुत है| उन्होंने पाठ्यक्रम को शिक्षाक्रम कहा है| उनके विस्तृत आलेख का पहला भाग हम गतांक में प्रकाशित कर चुके हैं| आलेख का उत्तरार्द यहां प्रस्तुत है|

बच्चो के अधिकार सामाजिक एवं राजनैतिक सरोकार

“संविधान में किन्हीं अधिकारों को जोड़ देना एक बात है और उन्हें अमली जामा पहनाना दूसरी| बच्चों के मामले में जिन कानूनों और अधिकारों की बात हमारे संविधान में की गई है उनमें और वर्तमान जमीनी वास्तविकताओं में गहरा भेद है| शारदा कुमारी का यह लेख इस फांक को उजागर करता है|

Ganit ke prabhaavi shikshan

गणित, स्कूली विषय के रूप में बच्चों के लिए एक समस्या रही है और यह समस्या सभी संस्कृतियों की साझी है| इस समस्या का एक प्रमुख सूत्र उस शिक्षण पद्धति से जुड़ता है जिसके तहत गणित पढ़ी-पढ़ाई जाती आयी है| इसी सन्दर्भ में शिक्षक प्रशिक्षण अभिकरण द्वारा लन्दन के किंग्स कॉलेज में एक शोध किया गया जिसमें गणित शिक्षकों की शिक्षण पद्धितियों की विशेषताओं को रेखांकित करने का प्रयास किया गया| इस परियोजना में 11 स्कूलों के 90 शिक्षक और 2000 बच्चों के बारे में सूचनाएं व् आंकडे एकत्र किये गये| प्रस्तुत है यहां इस शोध का एक सारांश|

शिक्षा में आदर्शो का महत्व

“यह लेख यह वकालत करता है कि बच्चों के लिए आदर्शग प्रस्तुत करना महत्वपूर्ण बात है| इस लेख में लेखक ने चरित्र निर्माण में अध्यापक की भूमिका पर चर्चा की है| आदर्शों को कल्पित श्रेष्ठताओं के रूप में परिभाषित किया जाता है जो इतने वांछनीय होते हैं कि लोग उन्हें वास्तविक रूप देने का प्रयास करेंगे| ये विशिष्टतायें लोगों के लिए आदर्शों के महत्व को प्रदर्शित करती हैं| आदर्श उनके जीवन को दिशा और अर्थ प्रदान करते हैं| बहरहाल, आदर्शों की प्रेरक शक्ति धर्मान्धता की ओर भी ले जा सकती है| अतः शिक्षा में कतिपय मूल्यवान आदर्श जुड़े होने चाहिये, जिनसे बच्चे खुद को प्रतिबद्ध कर सकें और साथ ही लोग किस तरह से प्रतिबद्ध हों एवं उन्हें वास्तविक जमा पहनाने का प्रयास करें, इसका समीक्षात्मक प्रतिबिम्बन हो|

Shiksha sirf kuchh ke liye

यह लेख लगभग एक वर्ष पुराना है| 10 नवम्बर 2003 को दिल्ली में ‘शिक्षा सबके लिए’ सम्मलेन आयोजित हुआ था| तत्कालीन प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी के अभिभाषण और शिक्षा के प्रति सर्कार के दृष्टिकोण पर एक टिप्पणी है यह लेख| एक वर्ष बाद भी हम इसे ज्यों का त्यों छाप रहे हैं क्योंकि लेख की प्रासंगिकता आज भी उतनी ही जितनी एक वर्ष पहले थी| तत्कालीन प्रधानमंत्री ने सभी बच्चों को शिक्षित करने के लिए अतिरिक्त विदेशी धन के लिए अपील की| उस देश के लिए जो कि विदेशी मुद्रा कोष व् विश्व बैंक द्वार निर्देशित संरचनात्मक समायोजन की नितियं के जंजाल में फंसा है, बाह्य एजेंसियों पर निर्भरता का अर्थ होगा शक्षा नीतियों के निर्माण में राष्ट्रीय सार्वभौमिकता को नजरअंदाज करना|” अनिल सद्गोपाल दिल्ली विश्वविधालय में शिक्षाशास्त्र के प्रोफेसर हैं तथा नेहरु स्मारक संग्रहालय और पुस्तकालय में वरिष्ठ शोधकर्ता हैं| वह जन विज्ञान आंदोलन में एक कार्यकर्ता हैं|

Mushar samaaj aur shiksha

भारत भर में ऐसे अनेक वंचित समाज है जिन्हें इक्कीसवीं सदी आने के बाद भी अभी तक बुनियादी जरूरतें मुहैय्या नहीं हैं| कुछ उनका समाज और अधिकांशतः उच्चवर्गीय व वर्णीय मानसिकता वाली शासन व्यवस्था इसके लिए जिम्मेदार है| बिहार का मुसहर भी इसी तरह का एक वंचित समाज है| इसमें विकास की कोई हलचल सदियों तक नहीं दिखाई दी, लेकिन अब अक करवट बदल रही है उनकी जिन्दगी| उनके समाज के ले या कहें, उनके जैसे अन्य समाजों के लिए किस तरह की शिक्षा व्यवस्था जरुरी है और क्या वर्तमान शिक्षा व्यवस्था से उनका ‘विकास’ संभव है? इसकी पड़ताल कर रहे हैं ज्ञानदेव मणि त्रिपाठी|