संसाधन

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Vanchito ki shiksha: Saksharta nahi sakshamtaa ka sawaal

इस लेख में लेखक सभी बच्चों तक शिक्षा न पहुंचने की समस्या के मूल में गरीबी को देखते हैं और इसके निराकरण के लिए वे गांधी की बुनियादी शिक्षा की ओर देखते हैं| लेखक ने इन दोनों ही बातों का विस्तार से विवेचन किया है| और वेशक इन दोनों ही विचारों तथा विवेचनों पर आपत्तियां उठाई जा सकती हैं लेकिन लेखक इस तफसील में नहीं गये हैं| अस्तु!

Ganit shikshan meein prayogatmak vidhi :Ek shikshanshastriya bhram

इस आलेख में गणित की प्रकृति और उसकी विशिष्ट भाषा के साथ ही इसकी दार्शनिक पृष्ठभूमि पर प्रकाश डाला गया है| ज्ञान-अनुशासन के रूप में गणित की प्रकृति के अनुरूप शिक्षण-शास्त्र अपनाने पर लेख में विशेष रूप से जोर दिया गया है| गणित शिक्षण की प्रचलित प्रवृत्तियों की समीक्षा करते हुए इस क्षेत्र में प्रयुक्त ‘गणित में प्रयोग की भूल’ तथा ‘गणित में सरलीकरण (रिडक्शन) की भूल’ को इंगित किया गया है| लेख में ‘राष्ट्रीय पाठ्यचर्या’ (2000) में गणित’ के प्रति अपनाये गये रवैये और बिड़ला अम्बानी रिपोर्ट (2002) में गणित व दर्शक के लिए प्रयुक्त दृष्टिकोण की तीखी आलोचना है| अंत में दर्शन की स्मृतियों को मिटाने के प्रयासों पर गंभीर चिंता जतायी गयी है|

Ganit ka seekhna aur seekhaana

प्रस्तुत लेख में प्राथमिक तथा माध्यमिक स्तर पर गणित के शिक्षार्थियों में व्याप्त हताशा के कारकों के रूप में गणित विषय की प्रकृति और शिक्षार्थियों कोआने वाली कठिनाईयों की पड़ताल की गई है| रिचर्ड स्केम के इस कथन को पड़ताल का प्रस्थान – बिन्दु माना गया है, ‘जब तक हम स्वयं ‘समझ’ के बारे में बेहतर व् साफ समझ न बना लें; हमारी स्थिति गणित को खुद समझने में और दूसरों को समझने में कमजोर ही रहेगी|’ अतः लेख में समझ तथा इसके स्वरुप, गणित की विशिष्ट प्रवृत्तियों, अवधारणात्मक संरचना व् संकेतों और इसके शिक्षाक्रम व् शिक्षण विधियों पर विचार किया गया है| अंततः कहा गया है कि गणित-शिक्षण भी शिक्षा-दर्शन की समग्रता से ही निर्देशित हो सकता है|

Ganit ka seekhna aur seekhaana

प्रस्तुत लेख में प्राथमिक तथा माध्यमिक स्तर पर गणित के शिक्षार्थियों में व्याप्त हताशा के कारकों के रूप में गणित विषय की प्रकृति और शिक्षार्थियों कोआने वाली कठिनाईयों की पड़ताल की गई है| रिचर्ड स्केम के इस कथन को पड़ताल का प्रस्थान – बिन्दु माना गया है, ‘जब तक हम स्वयं ‘समझ’ के बारे में बेहतर व् साफ समझ न बना लें; हमारी स्थिति गणित को खुद समझने में और दूसरों को समझने में कमजोर ही रहेगी|’ अतः लेख में समझ तथा इसके स्वरुप, गणित की विशिष्ट प्रवृत्तियों, अवधारणात्मक संरचना व् संकेतों और इसके शिक्षाक्रम व् शिक्षण विधियों पर विचार किया गया है| अंततः कहा गया है कि गणित-शिक्षण भी शिक्षा-दर्शन की समग्रता से ही निर्देशित हो सकता है|

Prarambhik ganit : Seekhne seekhaane ka pariprekshay

शिक्षा मात्र का जगत काफी निराशजनक है और गणित की शिक्षा तो उसमें भी निम्नतर स्टार पर है| इस लेख में स्कूल में पढाये जाने वाले आरंभिक गणित की विषयवस्तु और शिक्षणशास्त्र दोनों पर विचार किया गया है| लेखक ने आरंभिक गणित के सिखने-सिखाने में होने वाली दिक्कतों की प्रकृति पर चर्चा की है| इसमें आरंभिक गणित के कुछ हिस्सों, मुक्य तौर पर संख्या, गणितीय अभिक्रिया तथा बीज गणित पर चर्चा को भी शामिल किया गया है| लेखक इस सवाल पर विश्लेषणपरक नजरिया प्रस्तुत करता है कि एक छात्र जब आरंभिक गणित की आधारभूत अवधारणाओं को सिखाता है तब इसके साथ-साथ उसका मनोवैज्ञानिक विकास कैसे होता है? गणित सिखने-सिखाने को लेकर किये गये संज्ञानात्मक अध्ययनों से प्राप्त अन्तदृष्टि ने लेख को सुसंगत पृष्ठभूमि प्रदान की है|

Ganit ki prakriti

इस लेख में वस्तुतः एक ज्ञान अनुशासन के रूप में गणित की प्रकृति की विवेचना की गयी है| लेख के आरंभ में गणित विषयक कुछ भान्तियों की चर्चा की गयी है, जैसे-गणित को विज्ञान के रूप में परिभाषित करना; गणित को रोजमर्रा के काम में उपयोगी बताना या फिर गणित अधिगम को रोचक बनाने के हास्यास्पद उपक्रम| बाद में गणित की वैचारिक परम्पराओं (विचारधारा के स्कूल) का उल्लेख करते हुए इसकी विशिष्ट प्रकृति पर विचार किया गया है| लेखक के अनुसार गणित की शक्ति और साधारणीकरण उसके उपयोग से परे जाने (ट्रान्सेन्ड) के कारण है| गणित अपनी प्रकृति के कारण अपने अधिगम उद्देश्यों में बहुत सीमित है|

Paramparaa se aadhunikta tak ek safar ‘school se baahar’

भाषा की मौखिक परम्परा की तरह व्यावहारिक गणित की अपनी ही प्राचीन परम्परा है| दूर-दूर तक की यात्राएं करने वाले व्यापारियों से घुमन्तू बंजारों ताकैसे अनेक समुदाय हैं, जो वाणिज्यिक गतिविधियों से आजीविका कमाते थे और बिना स्कूल गये सामान्य गणितीय संक्रियाओं का प्रयोग करते थे| यहां प्रस्तुत प्रसंगों की भांति गणित की व्यावहारिक संक्रियाएं एक-दुसरे से या अपनी पुरानी पीढ़ियों से सीखी जाती रही हैं| यह अलग बात है कि चरवाहे अथवा एक ट्रक ड्राइवर की रोजमर्रा की यह दक्षता आधी-अधूरी गणित साक्षरता से आगे की चीज नहीं है|

Aadhunik vishv mein ek uttar aupniveshik vidhyalaya

यह निबन्ध एक विधालय के बारे में हैं जो न केवल एक शैक्षिक परियोजना का प्रतिफल था, बल्कि एक ऐतिहासिक हस्तक्षेप भी था| इस विधालय पर चर्चा शिक्षा के इतिहास को बाकी इतिहास के संदर्भ में देखने का उपक्रम है| साथ ही एक प्रांतीय शहर में नये ज्ञान के साथ आधुनिकता की प्रकृति को समझने की कोशिश है जो उत्तर-औपनिवेशिक सैद्धांतिक व व्यावहारिक दृष्टिकोण के निर्माण में मदद करती है| लेखकों के अनुसार उत्तर-औपनिवेशिक होने का अर्थ अहि औपनिवेशिक संरचना के बार-बार बनाने के चक्र को तोड़ना और पढ़ने व् सीखने के नये तरीकों को गढ़ने का प्रयास करना| इसका अर्थ हुआ व्यर्थ हावी औपनिवेशिक रिश्तों का विरोध करना व् इन्हें उलट देना|

Shiksha vishamtaa aur manavadhikaar

यह संवाद दिल्ली विश्वविधालय के शिक्षा विभाग में 11 दिसम्बर, 1998 आयोजित एक परिचर्चा का अंश है| इस परिचर्चा में मानव अधिकारों की सुनिश्चतता के लिए स्वामी अग्निवेश ने शिक्षा प्रसार की खातिर अभियान की आवश्यकता तथा उसे राष्ट्रव्यापी स्टार पर चलाने की बात कही| इस परिचर्चा में से यहां प्रो० कृष्ण कुमार का वक्तव्य तथा उस पर हुए संवाद का यह प्रत्युत्तर दिया जा रहा है जो एक विषमता मूलक सभ्यता में शिक्षा की स्थिति और भारतीय शिक्षा प्रणाली में अन्तर्निहित वैषम्य के प्रश्न को उठता है| हमें लगता है कि इस संवाद को पुनः उद्धरित करना प्रासंगिक है कयोंकि चीजें उसी दिशा में जा रही हैं जिनके प्रति उक्त वक्तव्य में सचेत किया गया था| अनिल सद्गोपाल की अध्यक्षता में सम्पन्न इस परिचर्चा में स्वामी अग्निवेश एवं कृष्ण कुमार के आलावा ज्यां ड्रेज ने भी शिरकत की थी|