संसाधन
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ज्ञान के मानकों को अपाने पक्ष में मोड़ने की राजनीती भारतीय शिक्षा जगत में ऐतिहासिक तौर पर चली आ रही समस्या है| स्कूली पाठ्यचर्या, पाठ्यक्रम तथा पाठ्यपुस्तकों के विगत वर्षों में किये गये फेरबदल के ओइचे भी कोई शैक्षिक सरोकार नहीं रहे बल्कि सामाजिक विषमता एवं सामाजिक न्याय को शिक्षा के संबोध्य क्षेत्र से बहार करने का प्रमुख एजेन्डा काम कर रहा था| एन.सी.ई.आर.टी. एवं राजस्थान पाठ्यपुस्तक मंडल द्वारा बनायीं गयी हिंदी की पाठ्यपुस्तकों का यह विश्लेषण बताता है कि ज्ञान की राजनीती एक विशिष्ट मानकीकृत जीवन शैली को सामने रखती है जो हाशिये पर रह रहे लोगों और वंचितों को और भी ज्यादा वंचित करती है| प्रस्तुत विश्लेषण ‘संस्कृति’ और कथित ‘विकास’ के सवाल को केन्द्र में रखकर किया गया है|
यह लेख वैश्वीकरण और उदारीकरण के भारतीय समाज, विशेषकर गरीब वंचित तबकों पर पड़ने वाले नकारात्मक पभावों को चिन्हित करने से शुरू होता है| भारत में शिक्षा के सार्वजनीकरण और निजीकरण के उपक्रमों पर भी विदेशी ऋण और अनुदान तथा उदारवादी प्रवृतियों ने निर्णायक प्रभाव डाला है| अन्तराष्ट्रीय संस्थाओं ने वित्त पोषित शिक्षा प्रसार के नीतिगत ढाचों में सामुदायिक सहभागिता पर बहुत जोर दिया है| इन नीतियों में ‘समुदाय’ की एक धारणा परिकल्पित कर ली गयी है जिस का समुदाय की वास्तविकता और पदानुक्रमिक संरचना से कोई संबंध नहीं है| समुदाय के इस वास्तविक स्वरुप से टकराये बिना सत्ता तंत्र द्वारा सामुदायिक सहभागिता हासिल करने की तयशुदा नियंत्रित रणनीति जमीनी स्टार पर लागू कर दी जाति है जिससे शैक्षिक प्रसार और इसकी प्रभावी उपलब्धि में कोई ठोस नतीजे नहीं मिलते| यह आलेख – शिक्षा में समुदाय की भागीदारी के वर्तमान चरित्र से जुड़े कुछ महत्वपूर्ण मुद्दों को खड़ा करता है|
दक्षिण एशिया में शिक्षा के प्रसार पर केन्द्रित इस चर्चा में शिक्षाविद् जलालुद्दीन मानते हैं कि शिक्षा का संबंध लोकतांत्रिक प्रक्रिया से जुड़ा हुआ है| दक्षिण एशिया के जिन देशों में लोकतांत्रिक की यह प्रक्रिया चली है वहां शिक्षा के प्रचार प्रसार के लिए अपेक्षाकृत अनुकूल माहौल बना है और जिन देशों में यह प्रक्रिया धीमी रही है वहां प्राथमिक शिक्षा के सार्वजनीकरण की प्रक्रिया भी धीमी रही है| जलालुद्दीन आर्थिक विकास एवं आर्थिक सुधार को भी शैक्षिक प्रसार में एक सहायक कारक मानते हैं| प्राथमिक शिक्षा में गुणवत्ता एवं प्रसार के मुद्दों को वे अलग-अलग करके नहीं देखते बल्कि इन्हें परस्पर सम्बद्ध मानते हैं| उनके अनुसार गुणवत्ता एवं प्रसार के बीच कोई अग्र-पश्च का रिश्ता नहीं है| इस बातचीत में उन्होंने शैक्षिक विकेन्द्रीकरण, जनसहभागिता, पाठ्यचर्या और विधार्थी – शक्षक संबंधों पर भी अपने दीर्घ अनुभवजन्य विचार व्यक्त किये हैं| उनकी यह शिकायत भी है कि दक्षिण एशिया एमिन शिक्षक-प्रशिक्षण संस्थाएं बहुत संकीर्णतावादी, पुरातनपंथी एवं रूढ़ हैं|
यहां चर्चित पुस्तक ‘भाषा, बोली और समाज : एक अंतः संवाद’ विभिन्न लेखों का एक संकलन है जो बोली और भाषा के द्वन्द, भाषा और शिक्षा के संबंध तथा भाषा और समाज के रिश्ते का कई दृष्टियों से आकलन और विश्लेषण करते हैं| इस विश्लेषण में लेखकों ने भारतीय औपनिवेशिकता के ऐतिहासिक परिप्रेक्ष्य और तद्जनित भाषायी विकास प्रक्रियाओं को पृष्ठभूमि में रखा है तो दूसरी ओर अंग्रेजी व् अंग्रेजियत का सामाजिक – सांस्कृतिक वर्चस्व भी उनकी चिन्ता का विषय है| पुस्तक की यह समीक्षा भाषा – शिक्षण के संदर्भ में इसका एक पाठ प्रस्तुत करती है|
सामान्य जनों पर आंकड़ों का आतंक बहुत हावी रहता है| सरकारी तत्र खुद भी आंकड़ों की दुनिया कको अधिकाधिक रहस्यमय बनाये रखता है| ऐसे में आकड़ों का विश्लेषण और उस पर विमर्श एक जुरुरी उपक्रम बन जाता है| शिक्षा के संदर्भ में सरकारी आंकड़ों का विश्लेषण कर यहां राजस्थान में बालिका शिक्षा की तस्वीर प्रस्तुत करने की कोशिश की जा रही है| इस विश्लेषण में नामांकन की आंकड़ों की प्रमाणिकता पर सावलिया निशान है तो प्रदेश में बालिका शिक्षा की धीमी प्रगति की वास्तविकता को उजागर किया है| ग्रामीण अंचलों, विशेष कर दलित समुदाय में तो स्थिति और भी चिन्तनीय है|
इस आलेख में एन.सी.ई.आर.टी. द्वार प्रकाशित कक्षा 6 से 10 तक की समाज विज्ञान की पुस्तकों के कुछ चयनित अंशों का विश्लेषण किया गया है| इस विश्लेषण के आधार पर लेखक ने टिप्पणी की है कि इन पुस्तकों में रचयिताओं द्वारा सामान्य ज्ञानशास्त्रिय व् शिक्षणशास्त्रीय आधारों की उपेक्षा की है| पाठ्यपुस्तकों कें दी गई सूचनाएं एवं परिघटनाएं पूरी तरह ऐतिहासिक, सामाजिक, आर्थिक एवं वैचारिक संदर्भों से कटी हुई हैं जिसमें समय एवं स्ताहन की पृष्ठभूमि बिल्कुल नदारद है| दुसरे शब्दों में कहें तो ये पुस्तकें संदर्भहीन, विचारहीन एवं अर्थहीन सूचनाओं के जरिये पहले से ही बस्ते के बोझ तले दबे विधार्थियों पर और अधिक मनोभौतिक बोझ बढ़ाने वाली हैं|
औपनिवेशिक दौर में शैक्षिक पिछड़ेपन से वैसे तो सभी परिचित थे किन्तु तत्कालीन परिस्थितियों को ठोस रूप में समझना वर्तमान शैक्षिक प्रयासों की महत्ता और गुणवत्ता की आवश्यकता को पुष्ट कर सकता है| यहां राजस्थान की भरतपुर रियासत में तत्कालीन शैक्षिक स्थिति और प्रयासों की एक झलक प्रस्तुत की गयी है| इसमें कई प्रवृत्तियों संदर्भ सहित समझ में आती हैं कि किस प्रकार अंग्रेजी सत्ता शिक्षा को अपने लिए कारकून तैयार करने के उपक्रम के रूप में देखती है? किस तरह रियासतदानों के साथ एक ‘इलीट’ वर्ग उभर रहा है जो आज तक शिक्षा में अपनी बढ़त और फलतः समाज में अपना वर्चस्व बनाये हुए है? किस तरह सार्वजनिक शिक्षा खैराती सदावर्त पर पनप रही है और बालिकाओं को कैसे इस धरा से बाहर रखा गया है?
प्रारंभिक स्तर पर बच्चों से नाटक करवाने का प्रचलन जहां निजी स्कूलों में बढ़ता जा रहा है, वहीँ मुख्यधारा के सरकारी स्कूल अभी भी ऐसी गतिविधियों के प्रति उदासीन हैं| दूसरी ओर बच्चों के ले शहरों में ग्रीष्मकालीन नाट्य – शिविर आयोजित किये जाने लगे हैं| लेकिन निजी स्कूलों के नाटक हों या शिविरों के, इनमें कुछ अतिरेक स्पष्ट परिलक्षित होते हैं| जैसे या तो ये नाटक छिछले मनोरंजन प्रधान होते हैं या फिर उपदेशात्मक| बच्चे के व्यक्तित्व विकास में अन्य ललित कलाओं की भांति नाट्य गतिविधियों की जो महत्वपूर्ण भूमिका हो सकती है, उसके प्रति इनमें गंभीरता नजर नहीं आती|
समय की मांग एवं प्रगतिशील विचारों के दबाव से कानूनी ढांचे में तो परिवर्तन हुये है, लेकिन सामाजिक संदर्भों में परिवर्तन अपेक्षाकृत नहीं हुआ है| ये गति और भी धीमी हो जाति है जबकि सामाजिक वैचारिकी में परिवर्तन के प्रयास सघन न हों| बालिका शिक्षा को बढ़ावा देने के चाहे कितने ही दावे किये जाएं, वास्तविकता ये है कि ग्रामीण एवं पिछड़े तबकों में स्थिति अभी भी चिन्ताजनक बनी हुई है| बालिका शिक्षा के प्रोत्साहन के लिए ठोस व्यावहारिक योजनाएं बनानी होंगी| यह समता पूर्ण एवं न्याय सम्मत समाज की प्राप्ति के लिए अनिवार्य है| प्रस्तुत लेख शिक्षा एवं समाज में बालिकाओं की स्थिति का आँकलन करता है|