संसाधन

Explore this section to look at the rich repository of resources compiled and generated in-house by RRCEE. It includes curriculum materials, research articles, translations, and policy documents, including commission reports, resources for teachers, select articles from journals and e-books. These all are collated under in user friendly categories, with inter-sectional tags. These resources are both in Hindi and English and cover a wide range of topics.


Gyananushasanon ka islamikaran : Desaj shiksha vyastha ka ek prastav

आज विश्व में जिसे सेक्लुयर ज्ञान मन जाता है उसका अधिकांश पश्चिमी है| अर्थात् वह यूरोप और अमेरिका के वाशिंदों ने निर्मित किया है| ज्ञान की एक से अधिक प्रणालियां हो सकती हैं| अर्थात् भौतिक विश्व कैसे संचालित होता है, मानव मन कैसे काम करता है, मानव समाज का कैसा स्वरुप उचित है आदि पर एक से अधिक मत हो सकते हैं| बहुत से लोगों को लगता है कि विभिन्न धार्मिक मत और विभिन्न संस्कृतियों के देशज (स्थानीय) मत भी उतने ही उपयुक्त हो सकते हैं जितने आज स्थापित पश्चिमी नजरिये| और जो नजरिया आज प्रचालन में अधिक है वह उसके मानने वालों के राजनैतिक, आर्थिक और सैन्य वर्चस्व के कारण है न कि किसी ज्ञान मिमांसीय श्रेष्ठता के कारण| अतः या तो अपना देशज ज्ञान बनाया जाए या फिर उपलब्ध पश्चिमी ज्ञान को ही देशज या अपनी धार्मिक विश्व दृष्टि के अनुसार ढला जाए| यह लेख इस तरह की एक कोशिश का लेखा-जोखा लेता है| इस सारे संदर्भ में शिक्षा में काम करने वालों को इसे देखने-समझने की जरुरत है| कई सवाल भी आते है: क्या ज्ञान के इस तरह से देशीकरण, इस्लामीकरण या किसी और तरह के ‘कारण’ से हम कहीं पहुंच सकते हैं? क्या कोई भी ज्ञान कभी भी उसके निर्माता मन के आग्रहों से अछुता रह सकता हैं? इन सवालों के बीच अपोनी पारंपरिक पहचान एवं चिन्तन पद्धतियों तथा वर्तमान वैश्विक ज्ञान में संबंध क्या हो? यही सवाल इस लेख के विषय हैं|

Tantragat gunatamk sudhar ka vastvik paryas.

होशंगाबाद विज्ञान शिक्षण कार्यक्रम “होविशिका” को एक ऐसे प्रयास के रूप में देखा जा सकता है जो शिक्षा की ‘सरकारी समझ’ का कोई विकल्प प्रस्तुत न करके सीधे मुख्यधारा में हस्तक्षेप के लिए आधार तैयार करता है और तंत्रगत बदलाव का प्रयास करता है| यह प्रयास सफल होने के बावजूद सरकारी तंत्र की अधिकारिक हिंसा का शिकार होकर समाप्त हुआ लेकिन यह प्रयास अपनी सम्पूर्णता में एक मिसाल है; उन सभी के लिए जो इस दिशा में सक्रिय हैं| यह लेख होविशिका के बारे में उपलब्ध द्वितीयक स्रोतों पर आधारित है इसलिए इससे ‘एम्पीरिकल’ शोध आधारित परिणामों या विश्लेषण की आशा नहीं रखी जानि चाहिए|

DPEP (Kerla): Ek Vishleshan

डी.पी.ई.पी. दुनिया भर में प्राथमिक शिक्षा में सुधर का सबसे बड़ा कार्यक्रम माना जाता है| नै आर्थिक निति लागू होने के बाद जब विकासशील देशों ने शिक्षा और स्वास्थ्य के लिए अनुदान के बजाय विश्व बैंक से ऋण लेना स्वीकार किया, तो इन देशों में इसी किस्म के कई कार्यक्रम चालू हुए| आर्थिक निति और शिक्षा निति के मद्दे नजर इस तरह के कार्यक्रमों की जबरदस्त आलोचनाएं भी हुई, लिकिन कम से कम डी.पी.ई.पी. के उदहारण से यह कहा जा सकता है कि इसका कुछ तो सकारात्मक असर दिखाई देता है| 2002 में कार्यक्रम का पहला चरण पूरा होने पर इस कार्यक्रम की समीक्षा की गई| केरल राज्य की समीक्षा दिगन्तर ने की| प्रस्तुत है अध्ययन पर एक रिपोर्ट|

Sanrachna se pare

"‘विमर्शबिन्दु’ पत्रिका का नया स्तम्भ है जिसमें आपको कई उत्तेजनापूर्ण मुद्दे मिलेंगे| शिक्षा से जुड़े इन मुद्दों पर आपकी प्रतिक्रिया/विचार आमन्त्रित हैं|
इस बार रिम्पी खिल्लन का लेख ‘संरचना के परे’ इस स्तम्भ में दिया जा रहा है| लेख में कई संवेदनशील मुद्दे बेहद संक्षिप्तीकरण के साथ उठाये गये हैं| (उदाहरण के लिए कुछ मुद्दे मोटे अक्षरों में दिए गए हैं|) और इन्हीं के आधार पर संरचना के विरुद्ध (!!) तर्क प्रस्तुत किये गये हैं| पाठक इस पर और इससे जुड़ने वाले तमाम मुद्दों को लेकर अपने विचार पत्रिका को भेज सकते हैं| चुनिन्दा विचारों/ प्रतिक्रियाओं को आगामी अंकों में शामिल किया गायेगा|"

Bachho Ko Kahani Sunana- Ek Avlokan

“बच्चे कहानी सुनना पसन्द करते हैं, यह एक तथ्य है| लेकिन एक तथ्य यह भी है कि इन कहानियों का चुनाव वयस्क अमूमन अपनी रुचियों, हितों और समझ के आधार पर करते हैं| अक्सर सुनाई जाने वाली कहानी किसी मूल्य, नैतिकता या उपदेश की वाहक बनती है| क्या बच्चे कहानी इन्हीं मूल्यों उपदेशों या नैतिक सन्देशों को ग्रहण करने के लिए सुनते हैं या अपने मनोरंजन और दृष्टि विस्तार के लिए? इस तरह से देखें तो कहानी सुनना भी एक कौशल बन जाता है, जिसमें बच्चों की रूचि और दुनियावी सरोकार दोनों का तालमेल जरुरी होता है| इस संदर्भ में अपना अनुभव बांट रहे हैं कमलेश चन्द्र जोशी|