संसाधन

Explore this section to look at the rich repository of resources compiled and generated in-house by RRCEE. It includes curriculum materials, research articles, translations, and policy documents, including commission reports, resources for teachers, select articles from journals and e-books. These all are collated under in user friendly categories, with inter-sectional tags. These resources are both in Hindi and English and cover a wide range of topics.


Meri Shiksha

सिखने के अवसरों की बहुलता बच्चे के अनुभवों एवं ज्ञान को दिशा देती है| लेकिन इन समस्त क्रियाओं में सिखने की जटिल प्रक्रिया उद्घाटित होती है| वयस्कों और शिक्षकों को यह अहसास तो हो सकता है कि वे बच्चे के लिए व्यापक फलक प्रदान कर रहे हैं| लेकिन इसमें बच्चा स्वयं को कैसे महसूस करता है? रविन्द्रनाथ का यह आत्मवृत बच्चे की सीखने की जटिल प्रक्रिया की ओर हमारा ध्यान खींचता है| इसी जटिल प्रक्रिया में एक ओर विविध अनुभवों का संचयन हो रहा होता है तो दूसरी ओर रविन्द्रनाथ इसे यांत्रिक क्रिया के रूप में भी रेखांकित करते हैं| रविन्द्रनाथ ने बहुत संक्षेप में, पर विविध विषयों के शिक्षण पर अपनी प्रतिक्रियाएं दर्ज की हैं| शायद यह हमारे लिए सिखने की प्रक्रिया के जटिल पक्षों को उजागर करे|

Shiksha ke adrashon mein parivartan.

"चन्द्रधर शर्मा ‘गुलेरी’ के इस लेख को स्वाधीनता आन्दोलन के राजनैतिक-सामाजिक संदर्भों में समझने पर यह स्पष्ट होता है कि स्वाधीनता आन्दोलन के दौरान सिर्फ राजनैतिक मुक्ति के प्रश्नों पर ही विचार नहीं हो रहा था बल्कि राज्य-समाज द्वारा पोषित अन्य व्यवस्थाओं पर भी सवाल उठ रहे थे|
प्रेमचंद ‘बच्चों को स्वाधीन बनाओ’ लेख में परिवार में बच्चों को स्वाधीन बनाने की मांग कर रहे थे तों ‘गुलेरी’ शिक्षा व्यवस्था में चली आ रही जड़ मान्यताओं में आमूल परिवर्तन के संदर्भ में सवाल उठा रहे थे| वर्तमान शिक्षा व्यवस्था अभी भी उन्हीं समस्यों से जूझ रही हैं जिन्हें ‘गुलेरी’ ने 1914 में लिखे इस लेख में उठाया है|"

Chitrakala : Baal shikshan ka mahattvpurna ang hai!

"हमारी स्कूली व्यवस्था सदा से ही लेखन-पठान की क्षमताओं पर केन्द्रित रही है| लेखन-पठान का ‘कौशल’ भी ‘वास्तव में’ कहाँ तक अर्जित हो प् रहा है, यह भी विचारणीय प्रशन है| लेकिन इसके इतर अन्य विषयों को जैसे - खेल, संगीत, नाटक, चित्रकारी, भ्रमण और यहाँ तक कि विज्ञान को भी – अवलोकन, जिज्ञासा, खोज आदि को – उपेक्षित एवं गौण माना जाता है|
इस संदर्भ में न सिर्फ स्कूल बल्कि अभिभाकों की दृष्टि भी यही बनी हुई है कि ये सब किस काम के हैं जबकि बच्चे को अदद ‘नौकरी’ करनी है और नौकरी तो इन सब से मिलनी है नहीं| यह सोच बच्चों एवं शिक्षा की आधी-अधूरी समझ को ही दर्शाती है| ये बच्चे के बहु-आयामी व्यक्तित्व को अनदेखा कर एक सांचे में ढालकर अपनी जरूरतों के मुताबिक ऐसे व्यक्तित्वों का निर्माण करना है जो सर्वथा एक जैसे हों तथा व्यवस्था में आसानी से खप सकें|
शिक्षा में कला के उपेक्षा एवं रूढ़ तरीकों से कराई गई कला शिक्षा बच्चों में आत्माभिव्यक्ति एवं व्यक्तित्व के बुनियादी पक्षों के विकास में अवरोध उत्पन्न करती है| यह बच्चों के ‘देखने’ को प्रभावित करता है और अपाने परिवेश के प्रति जागरूकता को रोकती है| बच्चों में आत्मविश्वास, सौन्दर्यबोध, कल्पनाशीलता, रचनात्मकता के गुणों के विकास के साथ ही कला के माध्यम से बच्चा अपने आसपास की स्थितियों पर प्रतिक्रिया भी दर्ज कराता है| जरुरत है उसे कला के लिए अच्छा माहौल उपलब्ध हो|"