Resources

Explore this section to look at the rich repository of resources compiled and generated in-house by RRCEE. It includes curriculum materials, research articles, translations, and policy documents, including commission reports, resources for teachers, select articles from journals and e-books. These all are collated under in user friendly categories, with inter-sectional tags. These resources are both in Hindi and English and cover a wide range of topics.


Aadhi bori aaloo

भारतीय समाज में बालिका-शिक्षा एक अहर्निशी चुनौती है| बालिका की विशिष्ट सामाजिक स्थिति को समझे और उनके प्रति संवेदनशील हुए वगैर इस चुनौती से पार पाना संभव नहीं है| लेकिन पितृसत्तात्मक समाज में बालिका को पक्षपात और हिनदृष्टि विरासत में मिलती है| यह संस्मरण उत्तर-भारत में इस जड़ विरासत के अस्तित्व का प्रमाण देता है|

थानागाजी में सहज शिक्षा केन्द्रों की शुरूआत

लोक जुम्बिश परियोजना के अन्तर्गत ग्रामीण कामकाजी बच्चों के लिए सहज शिक्षा केन्द्र संचालित किये जा रहे हैं| राजस्थान में संचालित इन सहज शिक्षा केन्द्रों के लिए विकास खण्डों में दिगन्तर अकादमिक मदद प्रदान करने की भूमिका निभा रहा है| ‘विमर्श’ के प्रवेशांक में ऐसे एक विकास खंड प्रतापगढ़ में भाषा-शिक्षण की तैयारी के लिए किये गये सर्वेक्षण की एक रपट के कुछ अंश प्रस्तुत किये गये थे| इस बार हम इन डायरी अंशों के जरिये अलवर जिले के थानागाजी विकास खंड में सहज शिक्षा केन्द्रों की शुरुआत प्रक्रिया की झलक दे रहे हैं| डायरी में इस प्रक्रिया के जमीनी प्रयास और उन प्रयासों की देहाती पृष्ठभूमि भी प्रतिबिम्बित हो रही है|

Pathyapustakon mein stri ki chhavi

शैक्षिक पाठ्यपुस्तकों को लेकर देशभर में और विशेष रूप से हिंदी-क्षेत्र में शिकायतें बहुत आम हैं| यह स्थिति और तब और गंभीर हो जाति है जबकि पाठ्यपुस्तकें ही शिक्षा के श्रेय और प्रेय मानी जाति है| ऐसे में पाठ्यपुस्तकों की बहुआयामी समीक्षा और विषयवस्तु-विश्लेषण की जरुरत है| प्रस्तुत है इसी दिशा में यह संक्षिप्त टिप्पणी|

लेव तोल्स्तोय की ‘शिक्षाशास्त्रीय रचनी’

"“जब में स्कूल्मी प्रवेश करता हूँ और चमकीली आंखों वाले तथा चेहरे पर देवदूत जैसे भाव लिये हुए इन फटेहाल गंदे मरियल बच्चों को देखता हूँ तो मुझे ऐसी आशंका और संत्रास घेर लेते हैं जैसे किसी डूबते आदमी को देखते समय महसूस किये जाते हैं| यहां सचमुच सबसे मूल्यवान चीज डूब रही है यानि वह आध्यात्मिक चीज जो बच्चों की आंखों में इतनी स्पष्ट रूप से दिखाई देती है| मैं जनता के लिये शिक्षा केवल इसलिये चाहता हूँ कि वहां डूब रहे उन पुश्किनों, ओस्त्रोग्रारस्कियो, फिलारेंतो और लोमोनोसोवों को बचा सकूं|”
- लेव तोलस्ताय
यह तोलस्तोय के शिक्षा-दर्शन के सरोकार का उन्हीं के शब्दों में सार-कथन है : समाज के जनतांत्रिकरण को शिक्षा की आधारभूमि मानना, मनुष्य की आध्यात्मिक समृद्धि को भी शिक्षा के व्यापक ध्येय मेंशामिल करना और सार्वजनिक शिक्षा में राज्य के हस्तक्षेप का निषेध तालस्ताय की कुछ ऐसी मान्यताएं हैं जिन पर आज भी चिंतन ओर बहस करने की जरुरत है| यह समीक्षा तालस्ताय की शिक्षा शास्त्रीय अवधारणाओं को रेखांकित करती है| ये धारणायें आज भी महत्वपूर्ण एवं काम की हैं|"

उपनिवेश पूर्व बंगाल में शिक्षा:पूर्वकथन

यह पोरोमेश आचार्य द्वारा दिगन्तर व्याख्यान माला के अन्तर्गत दिये गये प्रथम व्याख्यान 12 दिसम्बर, 1998 का आधार-लेख (अनुदित) है जो ‘स्टडीज इन हिस्ट्री’ ( 10, 2, एन. एस. (1914) सागे पब्लिकेशंजल, नयी दिल्ली) में प्रकाशित है| इस क्रम में दूसरा व्याख्यान (जनवरी ‘98) प्रो. कृष्ण कुमार का ‘बुनियादी शिक्षा की प्रासंगिकता’ पर और तीसरा ‘भारत की शिक्षा निति’ पर अनिल सद्गोपाल का था (फरवरी ‘98) जो क्रमशः ‘विमर्श’ के तीसरे व् दुसरे अंकों में छपे हैं|

Buniyadi shiksha ki parasangikta

यह दिगन्तर व्याख्यानमाला का तीसरा व्याख्यान (10 जनवरी, 1998)है| ‘विमर्श’ के प्रवेशांक में हमने कृष्ण कुमार का अनूदित लेख “आजादी के पांच दशक-दिशाहीन शिक्षा” छापा था| इस पर प्रतिक्रिया में वरिष्ठ कवि और चिंतक नन्द चतुर्वेदी ने लिखा है : “कृष्ण कुमार उन महत्वपूर्ण लेखकों में हैं जो एक बौद्धिक अनुसंधान की उत्तेजना जगाते हैं और उस रोमांटिसिज्म को तोड़ते हैं जो तीसरी दुनिया के लोगों को पकड़े हुए है|” बुनियादी शिक्षा पर कृष्ण कुमार के इस व्याख्यान के संदर्भ में भी नंद बाबू से सहमत हुआ जा सकता है| व्याख्यान में उनके ‘आभासी विषयान्तर’ प्रसंग के नये क्षितिज खोलते हैं|

Tagore tatha Gandhi ka shiksha darshan : Ek tulanatmak adhyyan

“गांधी तथा टैगोर के जीवन मूल्यों में जो सिद्धांतिक मतभेद थे उनकी झलक उनके शिक्षा संबंधी विचरों में भी देखी जा सकती है| अगर कलाकार टैगोर के लिए कल्पनाशीलता में जीवन का सर निहित था, तो गंधी ने मानव श्रम के माहत्व को समझते हुए काम को ही अधिक महत्व दिया|” यह टिप्पणी इस लेख के प्रकाशन के साथ की गयी थी| यह लेख ‘इकानॉमिक एण्ड पॉलिटिकल विकली’ (खंड – 32, सं. 12, मार्च, 1977) में छपा है जिसे यहां पुनः छपने का प्रसंग देशज शिक्षा-दर्शन पर विमर्श को सीमित दायरे से बहार लाने की कोशिश है| प्रस्तुत अनुवाद में तथ्यों व् संदर्भों को नहीं दिया आया है, इनकी जानकारी के लिए ‘ई. पी. डब्ल्यू.’ का उक्त अंक देखें|