Resources
Explore this section to look at the rich repository of resources compiled and generated in-house by RRCEE. It includes curriculum materials, research articles, translations, and policy documents, including commission reports, resources for teachers, select articles from journals and e-books. These all are collated under in user friendly categories, with inter-sectional tags. These resources are both in Hindi and English and cover a wide range of topics.
विज्ञान शिक्षण के परिप्रेक्ष्य चिन्तन का क्षेत्र आज भी गंभीर रूप से समस्याग्रस्त है| अभी तक विज्ञान के सामाजिक अन्तर्सम्बन्धों का मामला सुलझा नहीं है| मध्य प्रदेश के होशंगाबाद जिले की शालाओं में से होशंगाबाद विज्ञान शिक्षण कार्यक्रम शुरू हुआ| प्रस्तुत लेख में इस कार्यक्रम के आधार पर विज्ञान शिक्षण के मंतव्यों और प्रक्रियाओं को उपलब्धियों के संदर्भ में विश्लेषित किया गया है| लेख में कुछ बुनियादी सवाल उठाये गये हैं; जैसे – विज्ञान-शिक्षण और वैज्ञानिक दृष्टिकोण की निर्मिती का क्या संबंध हो? क्या वैज्ञानिक अवधारणाएं स्कूली चाहरदीवारी से बहार अनुप्रयोग के लिए नहीं हैं? भला विज्ञान-शिक्षण की तब क्या उपादेयता हो सकती है, जब वह सामाजिक संरचना में निहित जाति और लिंग जैसे अन्तार्भेदो एवं धार्मिक आग्रहों पर प्रतिक्रिया ही न करें? इस संदर्भ में एक प्रश्न और उठता है कि क्या यह कार्यक्रम एक ऐसी पीढ़ी तैयार कर पाया, जो वैज्ञानिक दृष्टिकोण की पक्षघर, प्रश्नाकुल और परिवर्तनकामी हो?
प्रारंभिक स्तर पर पर्यावरण शिक्षा एक जटिल और चुनौतीपूर्ण मसला है| पर्यावरण शिक्षा का विषय-क्षेत्र व्यापक और विविधतापूर्ण है जबकि बच्चों का सोच और अनुभव संसार सीमित| फिर पर्यावरण शिक्षा में संम्मिलित विषयों की प्रकृति में भिन्नता है| ऐसी स्थिति में इन विषयों की सारभूत एकता और पर्यावरण अध्ययन की आधारभूत प्रविधियों पर विचार महत्वपूर्ण हो जाता है| प्रस्तुत लेख इसी आवश्यकता पर टिप्पणी और किंचित दिशा-संकेत करता है|
विगत दशकों के शैक्षिक नवाचारों और शिक्षण-प्रयोगों का एक प्रमुख अवदान यह है कि इन्होंने कला-शिक्षण को प्राथमिक शिक्षा में पुनः प्रतिष्ठित किया है| यह जानकर सुखद आश्चर्य होता है कि गांधीजी द्वारा प्रणीत बुनियादी शिक्षा में कला – शिक्षण को महत्वपूर्ण स्ताहन प्राप्त था| देवी प्रसाद एक शिक्षाविद् अध्यापक रहे हैं जिन्होंने कला-शिक्षण के पाश्चात्य प्रयोगों और शांति-निकेतन मेंगुरुदेव रविन्द्रनाथ टैगोर और विख्यात चित्रकार नंदलाल बासु के कला-अनुभवों को बुनियादी तालीम में समाहित किया| बुनियादी शिक्षा से संबद्ध देवी प्रसाद का अनुभव और चिंतन उनकी पुस्तक ‘शिक्षा का वाहन ‘कला’ (नेशनल बुक ट्रस्ट, इंडिया) में संकलित है| यह लेख इसी पुस्तक का एक अध्याय है|
भारत में आर्थिक उदारीकरण की प्रक्रिया की बढ़त और बहुराष्ट्रीयकरण के विस्तार का सामाजिक प्रभाव अब स्पष्ट परिलक्षित होने लगा है| शिक्षा का क्षेत्र भी इस प्रभाव से अछूता नहीं है| मोटे तौर पर तीन स्तरों पर इस प्रभाव को लक्षित किया जा सकता है| प्रथम तो राज्य की रीति-नीतियों में विदेशी निवेशकों की इच्छानुसार किया गया फेरबदल है| दुसरे, शिक्षा के व्यापक उद्देश्य का साक्षर उपभोक्ता तैयार करने में ‘रिड्यूस’ करना और उच्च शिक्षा को जन-सामान्य की पहुंच से दूर करना है| तीसरे, विधालयों और शिक्षार्थियों को बहुराष्ट्रीय कम्पनियों के उत्पादों की खपत के लिए इस्तेमाल करना है| यह टिप्पणी इस प्रभाव का एक संक्षिप्त परिचय देती है|
सरला मोहनलाल ने प्रस्तुत पर्चे में संधान शोध केन्द्र द्वारा आयोजित कार्यशालाओं में हुए विचार-विमर्शों, विभिन्न शोध-पत्रों व् किताबों (जैसे माइकल कुइन पैट्टन की क्रिएटिव इवेलुएशन, क्रिस्टीन निकोलसन-नैलसन की मल्टीपल इन्तेलिजेन्सिस, डेविड लेजर की मल्टीपल इन्टेलिजेन्स अपरोचिस टू असेसमेन्ट सोलविंग दी असेसमेन्ट कोननड्रम, हॉर्वर्ड गार्डनर की मल्टीपल इन्टेलिजेन्स आदि) की मूल बातों को सिलसिलेवार तरीके से रखने का प्रयास किया है|
संवाद में इस बार तीन अवलोकन टिप्पणियां दी जा रही हैं जिनमें अवलोकन कर्ताओं की स्थितियों के प्रति गहरी संलग्रता और गंभीर चिंता व्यक्त है| ये टिप्पणियां विधालय, शिक्षक और बच्चों की स्थितियों-मनः स्थितिओं के तीन वृतान्तों के बहाने शिक्षा-परिदृश्य के चरित्र को खोलने के लिए प्रयत्नशील नजर आती हैं| संवाद का यह क्रम अनवरत जरी रहेगा|
शिक्षा में निजी क्षेत्र की सक्रियता आजादी के समय हामें विरासत में मिली| उस समय ऐसे निजी प्रयासों का शिक्षा क्षेत्र में उल्लेखनीय योगदान था जिन्होंने शिक्षा का एक देशज आदर्श स्वरुप तैयार करने का उपक्रम किया| कालान्तर में शिक्षा के निजी क्षेत्र में व्यापारीकरण और मुनाफा अर्जित करने की बाजारू प्रवृत्तियां प्रमुख होती चली गयीं| आज जितना भारतीय समाज विषम है, वैसी ही विषमता शिक्षा के निजी क्षेत्र में दिखायी पड़ती है| शिक्षा प्रसार के प्रति सर्कार की अक्षमता और सरकारी शिक्षातंत्र की कमजोरी ने शैक्षिक निजीकरण को बल प्रदान किया| वेशक, आज भी कुछ स्वैच्छिक संस्थानों के शैक्षिक नवाचार और प्रयास महत्वपूर्ण हैं| किन्तु शिक्षा के निजीकरण ने समूची प्रणाली को अपनी निहित स्वार्थी गिरफ्त में ले लिया है| इस स्थिति पर प्रस्तुतु आलेख में विस्तार से प्रकाश डाला गया है|
प्राथमिक शिक्षा में खेलों की महत्ता के विविध आयामों पर ‘शिक्षा-विमर्श’ के पछले अंक से जो संवाद शुरू किया था, उसे आगे बढ़ा रहे हैं| खेल बच्चे के आरंभिक समाजीकरण और उन्हें सीखने के लिए प्रवृत करने का काम करते हैं| खेलों से बच्चों में सहयोग, समूह भावना, नियम-निर्माण और उनकी अनुपालना तथा अभिव्यक्ति कौशल विकसित होते हैं| लेकिन सभी खेलों से ऐसा हो, यह जरूरी नहीं है और न सिर्फ खेल खिला देने भर से ही यह सब हो जायेगा| यहां से प्राथमिक शिक्ष में खेलों को लेकर शिक्षक की भूमिका और खलों का शैक्षणिक पहलू खुलता है|